✍️ कवियत्री: सुप्रिया ढोके, राह. नागपूर
फूलो सी नाजूक होती है बेटिया.
हर घर की शान होती है बेटिया.
उनकी आवाज से हर घर चहक उठता है.
जब खुशीसे खिलखिलाती है बेटिया.
होता नही है खुदका कोई घर उनका.
कहते हे पराया धन होती है बिटिया.
बचपन माँ बाप की लाडो मे पली होती है बेटिया.
पराई हो खो देती है सब लाड-प्यार बेटिया.
सबके ख्याल रखते-रखते खुद की खुशी भूल जाती है बेटिया.
बेटिया भी तो होती है इंसान फिर भी न जाने क्यू भूल जाते यह समाज??
जींदगी होती है लाजवाब उनकी गर मिल जाते हो उनके सभी अधिकार
धन्य होते है वह माँ- बाप जो खुदकी खुशिया भी बेटियों पर कर देते है कुर्बान.
खुदकी पहचान बनाने जब निकलती है बेटिया अक्सर समाज के नजरो मे चुभती है बेटिया.
मासूम होती है वह बेटिया जिनसे अक्सर होती है गलतिया.
फिर भी समाज में बदनाम होती है सिर्फ बेटिया.
गर उठा दे आवाज ये बेटिया डरा धमका कर चुप करा देते है.
समाज मे नही दिया जाता समान अधिकार कहते है बेटिया तो वही सही जो रहे गाय जैसे खूंटे पर बंधी, गर खोल दे मुह बेटिया गलत लड़की कह पीटा जाता है उनके नाम का ढिंढोरा,
सुनकर सबकी बुरी बाते बिखर जाती है कई बेटिया या फिर निखर जाती है बेटिया.
अपनी जिद पर आजाए तो कभी फूलन भी बन जाती है बेटिया.
खुश होती है वह बेटिया जिनके माँ बाप के लिए लड़को से कम नही होती है बेटिया.
पापा की परी होना आम बात है।
पापा की फूलन होणा बेहद खास बात है।
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